हिन्दी व्याकरण

тнαηкѕ ƒσя ѕυρρσят υѕ ραη∂ιт ѕнуαм ηαяαуαη тяιραтнι @яυ∂яαgσƒƒι¢ιαℓ яυ∂яαкѕн ѕαη∂ιℓуα 9453789608 ραη∂ιт ѕнуαм ηαяαуαη тяιραтнι ѕαη∂ιℓуα
हिन्दी व्याकरण
संज्ञा की परिभाषा : किसी जाति, द्रव्य, गुण, भाव, व्यक्ति, स्थान और क्रिया आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं । जैसे पशु (जाति), सुंदरता (गुण), व्यथा (भाव), मोहन (व्यक्ति), दिल्ली (स्थान), मारना (क्रिया) ।
संज्ञा के प्रकार : 1.जाति वाचक संज्ञा, 2.व्यक्ति वाचक संज्ञा, 3.भाव वाचक संज्ञा |

1. जातिवाचक संज्ञा : जिस संज्ञा शब्द से उसकी संपूर्ण जाति का बोध हो उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं । जैसे मनुष्य, नदी, नगर, पर्वत, पशु, पक्षी, लड़का, कुत्ता, गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी, नारी, गाँव आदि ।
2. व्यक्ति वाचक संज्ञा : केवल एक व्यक्ति, वस्तु या स्थान के लिये जिस नाम का प्रयोग होता है, उसे व्यक्ति वाचक संज्ञा कहते हैं | जैसे – राजू, राजेश, सुरेश, सुधा, सरिता |
3. भाववाचक संज्ञा : जिस संज्ञा शब्द से पदार्थों की अवस्था, गुण – दोष, धर्म आदि का बोध हो, उसे भाववाचक संज्ञा कहते हैं । जैसे –  बुढ़ापा, मिठास, बचपन, मोटापा, चढ़ाई, थकावट आदि ।

 कुछ विद्वान अंग्रेज़ी व्याकरण के प्रभाव के कारण संज्ञा शब्द के दो भेद और बतलाते हैं-
1.समुदायवाचक संज्ञा, 2.द्रव्यवाचक संज्ञा ।

1. समुदायवाचक संज्ञा :जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे - सभा, कक्षा, सेना, भीड़, पुस्तकालय, दल आदि।
2. द्रव्यवाचक संज्ञा : जिन संज्ञा – शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो उन्हें द्रव्यवाचक संज्ञा कहते हैं । जैसे – घी, तेल, सोना, चाँदी, पीतल, चावल, गेहूँ, कोयला, लोहा आदि ।

सर्वनाम की परिभाषा : जिस शब्द का प्रयोग संज्ञा के बदले में होता है, उसे सर्वनाम कहते हैं । उदाहरण –
सरिता ने गीता से कहा, मै तुम्हे पुस्तक दूँगी ।
सुनीता ने रीता से कहा, मै बाज़ार जाती हूँ ।
हिंदी के मूल सर्वनाम 11 हैं, जैसे- मैं, तू, आप, यह, वह, जो, सो, कौन, क्या, कोई, कुछ । 
प्रयोग की दृष्टि से सर्वनाम के छः प्रकार हैं –
1. पुरूषवाचक – मैं, तू, आप । 
2. निश्चयवाचक – यह, वह, ये, वे । 
3. अनिश्चयवाचक – कोई, कुछ । 
4. संबंधवाचक – जो, सो । 
5. प्रश्रवाचक – कौन, क्या । 
6. निजवाचक – आप । 
1. पुरूषवाचक सर्वनाम : जो सर्वनाम वक्ता (बोलनेवाले), श्रोता (सुननेवाले) तथा किसी अन्य के लिए प्रयुक्त होता है, उसे पुरूषवाचक सर्वनाम कहते हैं । जैसे – मैं, तू, आप आदि । 
2. निश्चयवाचक (संकेतवाचक) सर्वनाम : जो सर्वनाम निकट या दूर की किसी वस्तु की ओर संकेत करे, उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं ।
जैसे – गयह लड़की है । वह पुस्तक है । ये हिरन हैं । वे बाहर गए हैं ।
इन वाक्यों में यह, वह, ये और वे शब्द निश्चयवाचक सर्वनाम हैं ।
3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम : जिस सर्वनाम से किसी निश्चित व्यक्ति या पदार्थ का बोध नहीं होता, उसे अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं ।
जैसे – बाहर कोई है । मुझे कुछ नहीं मिला । इन वाक्यों में कोई और कुछ शब्द अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं । कोई शब्द का प्रयोग किसी अनिश्चित व्यक्ति के लिए और कुछ शब्द का प्रयोग किसी अनिश्चित पदार्थ के लिए प्रयुक्त होता है । 
4. संबंधवाचक सर्वनाम : जो सर्वनाम किसी दूसरी संज्ञा या सर्वनाम से संबंध दिखाने के लिए प्रयुक्त हो, उसे संबंधवाचक सर्वनाम कहते हैं । जैसे – जो करेगा सो भरेगा । इस वाक्य में जो शब्द संबंधवाचक सर्वनाम है और सो शब्द नित्य संबंधी सर्वनाम है । अधिकतर सो लिए वह सर्वनाम का प्रयोग होता है ।
5. प्रश्रवाचक सर्वनाम : जिस सर्वनाम से किसी प्रश्र का बोध होता है उसे प्रश्रवाचक सर्वनाम कहते हैं । जैसे – तुम कौन हो ? तुम्हें क्या चाहिए ? इन वाक्यों में कौन और क्या शब्द प्रश्रवाचक सर्वनाम हैं । कौन शब्द का प्रयोग प्राणियों के लिए और क्या का प्रयोग जड़ पदार्थों के लिए होता है । 
6. निजवाचक सर्वनाम : जो सर्वनाम तीनों पुरूषों (उत्तम, मध्यम और अन्य) में निजत्व का बोध कराता है, उसे निजवाचक सर्वनाम कहते हैं । जैसे – मैं खुद लिख लूँगा । तुम अपने आप चले जाना । वह स्वयं गाडी चला सकती है । उपर्युक्त वाक्यों में खुद, अपने आप और स्वयं शब्द निजवाचक सर्वनाम हैं ।

विशेषण की परिभाषा : वाक्य में संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता बताने वाले शब्दों को विशेषण कहते हैं । जैसे – काला कुत्ता । इस वाक्य में 'काला' विशेषण है । जिस शब्द (संज्ञा अथवा सर्वनाम) की विशेषता बतायी जाती है, उसे विशेष्य कहते हैं । उपरोक्त वाक्य में 'कुत्ता' विशेष्य है ।
विशेषण के चार प्रकार हैं : 1. गुणवाचक विशेषण, 2. संख्यावाचक विशेषण, 3. परिमाण – बोधक विशेषण, 4. सार्वनामिक विशेषण ।

गुणवाचक विशेषण : जिस शब्द से संज्ञा या सर्वनाम के गुण, रूप, रंग आदि का बोध होता है, उसे गुण वाचक विशेषण कहते हैं । जैसे – बगीचे में सुंदर फूल हैं, धरमपुर स्वच्छ नगर है, स्वर्गवाहिनी गंदी नदी है, स्वस्थ बच्चे खेल रहे हैं ।
उपर्युक्त वाक्यों में सुंदर, स्वच्छ, गंदी और स्वस्थ शब्द गुणवाचक विशेषण हैं । गुण का अर्थ अच्छाई ही नहीं, किन्तु कोई भी विशेषता । अच्छा, बुरा, खरा, खोटा सभी प्रकार के गुण इसके अंतर्गत आते हैं ।

संख्यावाचक विशेषण : जिस विशेषण से संज्ञा या सर्वनाम की संख्या का बोध होता है, उसे संख्यावाचक विशेषण कहते हैं । जैसे – कक्षा में चालीस विद्यार्थी उपस्थित हैं, दोनों भाइयों में बड़ा प्रेम हैं, उनकी दूसरी लड़की की शादी है, देश का हरेक बालक वीर है ।
उपर्युक्त वाक्यों में चालीस, दोनों, दूसरी और हरेक शब्द संख्यावाचक विशेषण हैं । संख्यावाचक विशेषण के भी दो प्रकार हैं –
निश्चित संख्यावाचक : जैसे, एक, पाँच, सात, बारह, तीसरा, आदि ।
अनिश्चित संख्यावाचक : जैसे, कई, अनेक, सब, बहुत आदि ।

परिमाणवाचक विशेषण : जिस विशेषण से किसी वस्तु की नाप-तौल का बोध होता है, उसे परिमाण – बोधक विशेषण कहते हैं । जैसे – मुझे दो मीटर कपड़ा दो, उसे एक किलो चीनी चाहिए, बीमार को थोड़ा पानी देना चाहिए ।
उपर्युक्त वाक्यों में दो मीटर, एक किलो और थोड़ा पानी शब्द परिमाण – बोधक विशेषण हैं । परिमाण – बोधक विशेषण के दो प्रकार हैं –
निश्चित परिमाण बोधक : जैसे, दो सेर गेहूँ, पाँच मीटर कपड़ा, एक लीटर दूध आदि ।
अनिश्चित परिमाण बोधक : जैसे, थोड़ा पानी और अधिक काम, कुछ परिश्रम आदि ।
परिमाण – बोधक विशेषण अधिकतर भाववाचक, द्रव्यवाचक और समूहवाचक संज्ञाओं के साथ आते हैं ।

सार्वनामिक विशेषण : जब कोई सर्वनाम शब्द संज्ञा शब्द से पहले आए तथा वह विशेषण शब्द की तरह संज्ञा की विशेषता बताये, उसे सार्वनामिक विशेषण कहते हैं । जैसे – वह आदमी व्यवहार से कुशल है ।
                       कौन छात्र मेरा काम करेगा ।
उपर्युक्त वाक्यों में वह और कौन शब्द सार्वनामिक विशेषण हैं । पुरूषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़ बाकी सभी सर्वनाम संज्ञा के साथ प्रयुक्त होकर सार्वनामिक विशेषण बन जाते हैं ।

क्रिया की परिभाषा : जिन शब्दों से किसी कार्य का करना या होना व्यक्त हो उसे क्रिया कहते हैं । उदाहरण : घोड़ा जाता है, पुस्तक मेज पर पड़ी है, मोहन खाना खाता है |
उपर्युक्त वाक्यों में जाता है, पड़ी है और खाता है क्रियाएँ हैं ।
क्रिया के साधारण रूपों के अंत में ना लगा रहता है । जैसे – आना, जाना, पाना, खोना, खेलना, कूदना आदि । क्रिया के साधारण रूपों के अंत का ना निकाल देने से जो बाकी बचे उसे क्रिया की धातु कहते हैं । आना, जाना, पाना, खोना, खेलना, कूदना क्रियाओं में आ, जा, पा, खो, खेल, कूद धातुएँ
हैं । शब्दकोश में क्रिया का जो रूप मिलता है, उसमें धातु के साथ ना जुड़ा रहता है । ना हटा देने से धातु शेष रह जाती है । 

अव्यय की परिभाषा : जिन शब्दों जैसे क्रियाविशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक तथा विस्मयादिबोधक आदि के स्वरूप में किसी भी कारण से परिवर्तन नहीं होता, उन्हें अव्यय कहा जाता है | अर्थात् जिन शब्दों के रूप बदलते नहीं हैं इन्हें अव्यय कहा जाता है । उदाहरण : अद्य – आज,
ह्यः – कल (बीता हूआ), श्वः – कल (आने वाला), परश्वः – परसों, अत्र – यहां, तत्र – वहां, कुत्र – कहां, सर्वत्र – सब जगह, यथा – जैसे, तथा – तैसे,
कथम् कैसे, सदा हमेशा |

काल की परिभाषा : क्रिया के जिस रूप से कार्य संपन्न होने का समय (काल) ज्ञात हो वह काल कहलाता है । काल के निम्नलिखित तीन प्रकार होते हैं –
1. भूतकाल,          2. वर्तमानकाल,         3. भविष्यकाल ।
1. भूतकाल : क्रिया के जिस रूप से बीते हुए समय (अतीत) में कार्य संपन्न होने का बोध हो वह भूतकाल कहलाता है । जैसे –
बच्चा गया, बच्चा गया है, बच्चा जा चुका था ।
ये सब भूतकाल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि गया’, ‘गया है’, ‘जा चुका था’, क्रियाएँ भूतकाल का बोध कराती हैं ।
2. वर्तमान काल : क्रिया के जिस रूप से कार्य का वर्तमान काल में होना पाया जाए, उसे वर्तमान काल कहते हैं । जैसे –
मुनि माला फेरता है, श्याम पत्र लिखता होगा ।
इन सब में वर्तमान काल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि फेरता है’, ‘लिखता होगा’, क्रियाएँ वर्तमान काल का बोध कराती हैं ।

3. भविष्यत काल :क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि कार्य भविष्य में होगा, वह भविष्यत काल कहलाता है । जैसे –

श्याम पत्र लिखेगा, शायद आज संध्या को वह आए ।
इन दोनों में भविष्यत काल की क्रियाएँ हैं, क्योंकि लिखेगा और आए क्रियाएँ भविष्यत काल का बोध कराती हैं ।

कारक की परिभाषा : कारक शब्द का शाब्दिक अर्थ है करने वाला, संज्ञा या किसी वाक्य में, मुहावरा या वाक्यांश सर्वनाम का क्रिया के साथ सम्बन्ध कारक कहलाता है । उदाहरण : सीता फल खाती है, राम ने डंडे से घोडे को पीटा, राम चार दिन में आएगा, राम कलम से लिखता है ।
कारक के प्रकार : हिन्दी में कारको की संख्या आठ है : 1. कर्ता कारक, 2. कर्म कारक, 3. करण कारक, 4. सम्प्रदान कारक, 5. अपादान कारक, 6. सम्बन्ध कारक, 7. अधिकरण कारक, 8. संबोधन कारक |
                               कारक के विभक्ति चिन्ह
कारक
चिन्ह
अर्थ
कर्ता
ने
काम करने वाला
कर्म कारक
को
जिस पर काम का प्रभाव पड़े
करण कारक
से
जिसके द्वारा कर्ता काम करें
सम्प्रदान कारक
को,के, लिए
जिसके लिए क्रिया की जाए
अपादान कारक
से (अलग होना )
जिससे अलगाव हो
सम्बन्ध कारक
का,की,के,रा,री,रे
अन्य पदों से सम्बन्ध
अधिकरण कारक
में,पर
क्रिया का आधार
संबोधन कारक
हे !,अरे !
किसी को पुकारना ,बुलाना

विशेष : कर्ता से अधिकरण तक विभक्ति चिह्न (परसर्ग) शब्दों के अंत में लगाए जाते हैं, किन्तु संबोधन कारक के चिह्न – हे, रे, आदि प्रायः शब्द से पूर्व लगाए जाते हैं ।

कर्ता कारक : जिस रूप से क्रिया (कार्य) के करने वाले का बोध होता है, वह कर्ताकारक कहलाता है । इसका विभक्ति – चिह्न नेहै । इस नेचिह्न का वर्तमानकाल और भविष्यकाल में प्रयोग नहीं होता है । इसका सकर्मक धातुओं के साथ भूतकाल में प्रयोग होता है । जैसे – 1. राम ने रावण को मारा ।

 2. लड़की स्कूल जाती है ।

पहले वाक्य में क्रिया का कर्ता राम है । इसमें नेकर्ता कारक का विभक्ति – चिह्न है । इस वाक्य में माराभूतकाल की क्रिया है । नेका प्रयोग प्रायः भूतकाल में होता है । दूसरे वाक्य में वर्तमानकाल की क्रिया का कर्ता लड़की
है । इसमें ने विभक्ति का प्रयोग नहीं हुआ है ।
कर्म कारक : क्रिया के कार्य का फल जिस पर पड़ता है, वह कर्म कारक कहलाता है । इसका विभक्ति – चिह्न कोहै । यह चिह्न भी बहुत से स्थानों पर नहीं लगता । जैसे – 1. मोहन ने साँप को मारा । 2. लड़की ने पत्र लिखा । पहले वाक्य में मारनेकी क्रिया का फल साँप पर पड़ा है । अतः साँप कर्म कारक है । इसके साथ परसर्ग कोलगा है । दूसरे वाक्य में लिखनेकी क्रिया का फल पत्र पर पड़ा । अतः पत्र कर्म कारक है। इसमें कर्म कारक का विभक्ति चिह्न कोनहीं लगा ।

करण कारक : जिसकी सहायता से कार्य संपन्न हो वह करण कारक कहलाता है । इसके विभक्ति – चिह्न से के द्वाराहै । जैसे – 1. अर्जुन ने जयद्रथ को बाण से मारा । 2. बालक गेंद से खेल रहे हैं ।

पहले वाक्य में कर्ता अर्जुन ने मारने का कार्य बाणसे किया । अतः बाण सेकरण कारक है । दूसरे वाक्य में कर्ता बालक खेलने का कार्य गेंद सेकर रहे
हैं । अतः गेंद सेकरण कारक है ।
संप्रदान कारक : संप्रदान का अर्थ है – देना । अर्थात् कर्ता जिसके लिए कुछ कार्य करता है, अथवा जिसे कुछ देता है, उसे व्यक्त करने वाले रूप को संप्रदान कारक कहते हैं । इसके विभक्ति चिह्न के लिएको हैं । 1. स्वास्थ्य के लिए सूर्य को नमस्कार करो । 2. गुरुजी को फल दो । इन दो वाक्यों में स्वास्थ्य के लिएऔर गुरुजी कोसंप्रदान कारक हैं |
अपादान कारक : संज्ञा के जिस रूप से एक वस्तु का दूसरी से अलग होना पाया जाए, वह अपादान कारक कहलाता है । इसका विभक्ति – चिह्न सेहै । जैसे – 1. बच्चा छत से गिर पड़ा । 2. संगीता घोड़े से गिर पड़ी । इन दोनों वाक्यों में छत सेऔर घोड़े सेगिरने में अलग होना प्रकट होता है । अतः घोड़े से और छत से अपादान कारक हैं ।
संबंध कारक : शब्द के जिस रूप से किसी एक वस्तु का दूसरी वस्तु से संबंध प्रकट हो, वह संबंध कारक कहलाता है । इसका विभक्ति चिह्न का’, ‘के’, ‘की’, ‘रा’, ‘रे’, ‘रीहै । जैसे – 1. यह राधेश्याम का बेटा है । 2. यह कमला की गाय है । इन दोनों वाक्यों में राधेश्याम का बेटेसे और कमला कागाय से संबंध प्रकट हो रहा है । अतः यहाँ संबंध कारक है ।
अधिकरण कारक : शब्द के जिस रूप से क्रिया के आधार का बोध होता है, उसे अधिकरण कारक कहते हैं । इसके विभक्ति – चिह्न में’, ‘परहैं । जैसे –  1. भँवरा फूलों पर मँडरा रहा है । 2. कमरे में टी.वी. रखा है । इन दोनों वाक्यों में फूलों परऔर कमरे मेंअधिकरण कारक है ।

संबोधन कारक : जिससे किसी को बुलाने अथवा सचेत करने का भाव प्रकट हो, उसे संबोधन कारक कहते है और संबोधन चिह्न (!) लगाया जाता है ।

जैसे –  1. अरे भैया ! क्यों रो रहे हो ? 2. हे गोपाल ! यहाँ आओ । इन वाक्यों में अरे भैयाऔर हे गोपाल’ ! संबोधन कारक है ।

लिंग : संज्ञा के जिस रूप से व्यक्ति या वस्तु की जाति (स्त्री या पुरूष) का भेद ज्ञात होता है, उसे लिंग कहते हैं | लिंग के दो भेद हैं – स्त्री लिंग तथा पुलिंग |
1. पुलिंग : जिस संज्ञा शब्द से पुरूष जाति का बोध होता है, उसे पुलिंग कहते हैं । जैसे – पिता, राजा, घोड़ा, कुत्ता, बन्दर, हंस, बकरा, लड़का आदि ।
2. स्त्रीलिंग : जिस संज्ञा शब्द से स्त्री जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते हैं । जैसे – माता, रानी, घोड़ी, कुतिया, बंदरिया, हंसिनी, लड़की, बकरी आदि ।
विशेष : जिस संज्ञा शब्द का लिंग ज्ञात करना हो, उसे पहले बहुबचन में बदल लिया जाता है | बहुबचन में बदल लेने पर यदि शब्द के अंत में या आता है, तो वह शब्द स्त्रीलिंग है | यदि या नहीं आता है, तो वह शब्द पुलिंग है |
कुछ प्राणीवाचक शब्द हमेशा स्त्रीलिंग या पुलिंग में ही प्रयुक्त होते हैं | जैसे –
पुलिंग – कौवा, खटमल, गीदड़, मच्छर, चीता, चीन, उल्लू आदि ।
स्त्रीलिंग – सवारी ,गुड़िया, गंगा, यमुना ।
पर्वतों के नाम पुलिंग होते हैं, जैसे – हिमालय, विन्द्याचल, सतपुड़ा आदि ।
देशों के नाम हमेशा पुलिंग होते हैं, जैसे – भारत, चीन, इरान, इराक आदि ।
महीनो के नाम हमेशा पुलिंग होते हैं, जैसे – चैत, वैसाख, जनवरी आदि ।
दिनों के नाम हमेशा पुलिंग होते हैं, जैसे – सोमवार, बुधवार आदि ।
नक्षत्र-ग्रहों के नाम पुलिंग होते हैं, जैसे – सूर्य, चन्द्र, राहू, शनि आदि ।
नदियों के नाम हमेशा स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे – गंगा, जमुना, कावेरी आदि ।
भाषा-बोलियों के नाम हमेशा स्त्रीलिंग होते हैं, जैसे – हिन्दी, उर्दू आदि ।
धातुओं, अनाज, द्रव्य, पदार्थ तथा शरीर के अंगो के नाम पुलिंग होते हैं, जैसे – सोना, तांबा, पानी, तेल, दूध आदि ।
कुछ संज्ञा शब्दों में मादा या नर लगाकर लिंग का प्रयोग किया जाता है ।
जैसे : भेडिया – मादा भेडिया, नर खरगोश – मादा खरगोश,
नर छिपकली –  मादा छिपकली |

संधि की परिभाषा : संधि शब्द का अर्थ है 'मेल' । दो निकटवर्ती वर्णों के परस्पर मेल से जो विकार (परिवर्तन) होता है वह संधि कहलाता है । जैसे –  सम् + तोष = संतोष,  देव + इंद्र = देवेंद्र,  भानु + उदय = भानूदय ।

संधि के प्रकार : संधि तीन प्रकार की होती हैं – 1. स्वर संधि, 2. व्यंजन संधि, 3. विसर्ग संधि |
स्वर संधि : दो स्वरों के मेल से होने वाले विकार (परिवर्तन) को स्वर – संधि कहते हैं । जैसे – विद्या + आलय = विद्यालय ।

व्यंजन संधि : व्यंजन का व्यंजन से अथवा किसी स्वर से मेल होने पर जो परिवर्तन होता है, उसे व्यंजन संधि कहते हैं । जैसे – जगत् + ईश  = जगदीश
विसर्ग संधि : विसर्ग (ः) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग में जो विकार होता है, उसे विसर्गसंधि कहते हैं । जैसे –
मनः + अनुकूल = मनोनुकूल |

समास की परिभाषा : समास का तात्पर्य है संक्षिप्तीकरण । दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर बने हुए एक नवीन एवं सार्थक शब्द को समास कहते हैं । जैसे – रसोई के लिए घरइसे हम रसोईघरभी कह सकते हैं ।
समास के प्रकार : 1. अव्ययीभाव समास, 2. तत्पुरुष समास, 3. द्विगु समास, 4. द्वन्द्व समास, 5. बहुव्रीहि समास, 6. कर्मधारय मास |

अव्ययीभाव समास : जिस समास का पहला पद प्रधान हो और वह अव्यय हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते हैं । जैसे – यथामति – मति के अनुसार, आजीवन – जीवन-भर, यथासामर्थ्य – सामर्थ्य के अनुसार |
तत्पुरुष समास : जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद गौण हो, उसे तत्पुरुष समास कहते हैं । जैसे – तुलसीदासकृत = तुलसी द्वारा रचित |
द्विगु समास : जिस समास का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो, उसे द्विगु समास कहते हैं । इससे समूह अथवा समाहार का बोध होता है । जैसे –  नवग्रह = नौ ग्रहों का समूह, दोपहर = दो पहरों का समाहार |
द्वन्द्व समास : जिस समास के दोनों पद प्रधान होते हैं तथा विग्रह करने पर और’, अथवा, ‘या’, एवं लगता है, वह द्वंद्व समास कहलाता है । जैसे –
पाप – पुण्य = पाप और पुण्य , सीता – राम = सीता और राम |
बहुव्रीहि समास : जिस समास के दोनों पद अप्रधान हों और समस्तपद के अर्थ के अतिरिक्त कोई सांकेतिक अर्थ प्रधान हो, उसे बहुव्रीहि समास कहते
हैं । जैसे – दशानन = दश है आनन (मुख) जिसके अर्थात् रावण,
              नीलकंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव |
कर्मधारय समास : जिस समास का उत्तरपद प्रधान हो और पूर्वपद व उत्तरपद में विशेषण – विशेष्य अथवा उपमान – उपमेय का संबंध हो, वह कर्मधारय समास कहलाता है । जैसे – चंद्रमुख = चंद्र जैसा मुख |
                                                  कमलनयन = कमल के समान नयन |

कर्मधारय और बहुव्रीहि समास में अंतर :

कर्मधारय में समस्त – पद का एक पद दूसरे का विशेषण होता है । इसमें शब्दार्थ प्रधान होता है । जैसे – नीलकंठ = नीला कंठ । बहुव्रीहि में समस्त पद के दोनों पदों में विशेषण – विशेष्य का संबंध नहीं होता, अपितु वह समस्त पद ही किसी अन्य संज्ञादि का विशेषण होता है । इसके साथ ही शब्दार्थ गौण होता है और कोई भिन्नार्थ ही प्रधान हो जाता है । जैसे –
नील + कंठ = नीला है कंठ जिसका अर्थात् शिव
संधि और समास मे अंतर :
संधि वर्णों में होती है । इसमें विभक्ति या शब्द का लोप नहीं होता है । जैसे – देव + आलय = देवालय ।
समास दो पदों में होता है । समास होने पर विभक्ति या शब्दों का लोप भी हो जाता है । जैसे – माता - पिता = माता और पिता ।

उपसर्ग की परिभाषा : उपसर्ग वे शब्दांश होते हैं, जो किसी शब्द से पूर्व लगकर उस शब्द का अर्थ बदल देते हैं | उदाहरण :
उपसर्ग
उपसर्ग से निर्मित शब्द
अति
अतिशय, अत्याचार, अतिसार
आजीवन, आकार, आजीविका
परि
परिमाप, परिचय, परिमाण

प्रत्यय की परिभाषा : प्रत्यय वह शब्दांश है, जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता और जो किसी शब्द के पीछे लगकर उसके अर्थ में विशिष्टता या परिवर्तन ला देता है | अर्थात् शब्द के पश्चात् जो अक्षर या अक्षर समूह लगाया जाता है उसे प्रत्यय कहते हैं | उदाहरण :
प्रत्यय
प्रत्यय से निर्मित शब्द
लिखा, भूला, झूला
कर
जाकर, गिनकर
सा
ऐसा, वैसा, तैसा

रस की परिभाषा : श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है । रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव  होता है ।
रस के प्रकार :
रस का प्रकार
स्थायी भाव
श्रृंगार रस
रति
हास्य रस
हास
करूण रस
शोक
रौद्र रस
क्रोध
वीर रस
उत्साह
भयानक रस
भय
वीभत्स रस
घृणा, जुगुप्सा
अद्धुत रस
आश्चर्य
शांत रस
निर्वेद
वात्सल्य
वत्सल
भक्ति
भक्ति

















छंद की परिभाषा : वाक्य में प्रयुक्त अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा – गणना तथा यति – गति से सम्बद्ध विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्यरचना ‘'छन्द'’ कहलाती है |

छंदों के कुछ प्रकार :

दोहा : दोहा मात्रिक छंद है । दोहे के चार चरण होते हैं । इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 1313 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 1111 मात्राएँ होती हैं । सम चरणों के अंत में एक गुरू और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है । उदाहरण :
                                मुरली वाले मोहना, मुरली नेक बजाय ।
                                तेरो मुरली मन हरो, घर अँगना न सुहाय ॥

सोरठा : सोरठा मात्रिक छंद है और यह दोहा का ठीक उलटा होता है । इसके विषम (प्रथम तथा तृतीय) चरण में 1111 मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरण में 1313 मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के अंत में एक गुरू और एक लघु मात्रा  का होना आवश्यक होता है । उदाहरण :
                               जो सुमिरत सिधि होय, गननायक करिबर बदन ।
                               करहु अनुग्रह सोय, बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥

 

चौपाई : चौपाई मात्रिक सम छंद है । इसके प्रत्येक चरण में 1616 मात्राएँ होती हैं । उदाहरण :

                      बंदउँ गुरु पद पदुम परागा ।
                     सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ॥
अलंकार की परिभाषा : काव्य की शोभा बढ़ाने वाले शब्दों को अलंकार कहते हैं | इसके तीन प्रकार होते है : 1. शब्दालंकार 2. अर्थालंकार 3. उभयालंकार
शब्दालंकार : जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उपस्थित हो जाता है और उन शब्दों के स्थान पर समानार्थी दूसरे शब्दों के रख देने से वह चमत्कार समाप्त हो जाता है, वह पर शब्दालंकार माना जाता
है । शब्दालंकार के तीन भेद हैं : (अ) अनुप्रास, (ब) यमक, (स) श्लेष |
(अ)अनुप्रास : अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है । 'अनु' का अर्थ है – बार - बार तथा 'प्रास' का अर्थ है – वर्ण जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार - बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है । इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार - बार प्रयोग किया जाता है ।
उदाहरण
              जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप 
              विश्व बदर इव धृत उदर जोवत सोवत सूप । ।

(ब)यमक अलंकार : जहाँ एक ही शब्द अधिक बार प्रयुक्त हो, लेकिन अर्थ हर बार भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है । उदाहरण :
             कनक कनक ते सौगुनी ,मादकता अधिकाय 
             वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय । ।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ
है – धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है ।
(स)श्लेष अलंकार : जहाँ पर ऐसे शब्दों का प्रयोग हो, जिनसे एक से अधिक अर्थ निलकते हों, वहाँ पर श्लेष अलंकार होता है । उदाहरण :
                           चिरजीवो जोरी जुरे क्यों  सनेह गंभीर 
                           को घटि ये वृष भानुजा, वे हलधर के बीर । ।
यहाँ वृषभानुजा के दो अर्थ हैं – 1. वृषभानु की पुत्री राधा 2. वृषभ की अनुजा गाय । इसी प्रकार हलधर के भी दो अर्थ हैं – 1. बलराम 2. हल को धारण करने वाला बैल |


अर्थालंकार : जहाँ अर्थ के माध्यम से काव्य में चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है । इसके प्रमुख भेद हैं –
(क) उपमा,  (ख) रूपक,  (ग) उत्प्रेक्षा,  (घ) दृष्टान्त,  (ड) संदेह,
(च)  अतिशयोक्ति |

()उपमा अलंकार : जहाँ दो वस्तुओं में अन्तर रहते हुए भी आकृति एवं गुण की समता दिखाई जाय, वहाँ उपमा अलंकार होता है । उदाहरण :
सागर – सा गंभीर ह्रदय हो, गिरी – सा ऊँचा हो जिसका मन ।
इसमे सागर तथा गिरी उपमान, मन और ह्रदय उपमेय सा वाचक, गंभीर एवं ऊँचा साधारण धर्म है ।

(ख)रूपक अलंकार : जहाँ उपमेय पर उपमान का आरोप किया जाय, वहाँ रूपक अलंकार होता है, यानी उपमेय और उपमान में कोई अन्तर न दिखाई पड़े । उदाहरण :
बीती विभावरी जाग री । अम्बर - पनघट में डुबों रही, तारा - घट उषा नागरी '
यहाँ अम्बर में पनघट, तारा में घट तथा उषा में नागरी का अभेद कथन है ।

(ग)उत्प्रेक्षा अलंकार : जहाँ उपमेय को ही उपमान मान लिया जाता है, यानी अप्रस्तुत को प्रस्तुत मानकर वर्णन किया जाता है । वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है । यहाँ भिन्नता में अभिन्नता दिखाई जाती है । उदाहरण :
                   सखि सोहत गोपाल के ,उर गुंजन की माल |
                   बाहर सोहत मनु पिये,दावानल की ज्वाल । ।
यहाँ गूंजा की माला उपमेय में दावानल की ज्वाल उपमान के संभावना होने से उत्प्रेक्षा अलंकार है ।
(घ)अतिशयोक्ति अलंकार : जहाँ पर लोक – सीमा का अतिक्रमण करके किसी विषय का वर्णन होता है । वहाँ पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है । उदाहरण :
                हनुमान की पूंछ में लगन  पायी आगि 
               सगरी लंका जल गई ,गये निसाचर भागि। ।
यहाँ हनुमान की पूंछ में आग लगते ही सम्पूर्ण लंका का जल जाना तथा राक्षसों का भाग जाना आदि बातें अतिशयोक्ति रूप में कहीं गई है ।

(ड.)संदेह अलंकार : जहाँ प्रस्तुत में अप्रस्तुत का संशयपूर्ण वर्णन हो, वहाँ संदेह अलंकार होता है । उदाहरण :
           'सारी बिच नारी है कि नारी बिच सारी है 
           कि सारी हीकी नारी है कि नारी हीकी सारी है '
इस अलंकार में नारी और सारी के विषय में संशय है, अतः यहाँ संदेह अलंकार है ।
(च)दृष्टान्त अलंकार : जहाँ दो सामान्य या दोनों विशेष वाक्य में बिम्ब- प्रतिबिम्ब भाव होता है, वहाँ पर दृष्टान्त अलंकार होता है । इस अलंकार में उपमेय रूप में कहीं गई बात से मिलती – जुलती बात उपमान रूप में दूसरे वाक्य में होती हैं । उदाहरण :
              'एक म्यान में दो तलवारें, कभी नही रह सकती है 
              किसी और पर प्रेम नारियाँ, पति का क्या सह सकती है । । '
इस अलंकार में एक म्यान दो तलवारों का रहना वैसे ही असंभव है जैसा कि एक पति का दो नारियों पर अनुरक्त रहना । अतः यहाँ बिम्ब - प्रतिबिम्ब भाव दृष्टिगत हो रहा है ।


उभयालंकार : जहाँ काव्य में शब्द और अर्थ दोनों का चमत्कार एक साथ उत्पन्न होता है, वहाँ उभयालंकार होता है । उदाहरण :                            'कजरारी अंखियन में कजरा  लखाय ।'
इस अलंकार में शब्द और अर्थ दोनों है ।

*देवनागरी लिपि : हिंदी की अपनी एक लेखन पद्धति है, जिसे देवनागरी लिपि कहते हैं । देवनागरी लिपि में अनेक भारतीय भाषाएँ तथा कुछ विदेशी भाषाएँ भी लिखी जाती हैं । संस्कृत, पालि, हिंदी, मराठी, कोंकणी, नेपाली आदि भाषाएँ देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं । इसके अतिरिक्त कुछ स्थितियों में गुजराती, पंजाबी, बिष्णुपुरिया मणिपुरी, रोमानी, उर्दू आदि भाषाएँ भी देवनागरी लिपि में लिखी जाती हैं । अधिकतर भारतीय लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से विकसित हुई हैं । देवनागरी लिपि का विकास भी ब्राह्मी लिपि से हुआ है ।
*हिंदी के लिए प्रयुक्त देवनागरी लिपि में कुल 52 वर्ण हैं, जिनमें 11 मूल स्वर वर्ण (जिनमें से '' का उच्चारण अब स्वर जैसा नहीं होता), 33 मूल व्यंजन, 2 उत्क्षिप्त व्यंजन, 2 अयोगवाह और 4 संयुक्ताक्षर व्यंजन हैं।
कुल 52 वर्ण = (11 मूल स्वर ) + (33 मूल व्यंजन ) + (2 उत्क्षिप्त व्यंजन ) +(2 अयोगवाह ) + (4 संयुक्ताक्षर व्यंजन )

(11 मूल स्वर )
अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ
(33 मूल व्यंजन )
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
श ष स ह
(2 उत्क्षिप्त व्यंजन )
ड़ ढ़
(2 अयोगवाह )
अं अः (इन वर्णों को अब प्रायः वर्णमाला में सम्मिलित नहीं किया जाता)

*वर्णमाला : वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं । हिंदी वर्णमाला में 52 वर्ण हैं । उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिंदी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं : 1. स्वर       2. व्यंजन
स्वर : जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों, वे स्वर कहलाते हैं । ये संख्या में 11 हैं – अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओ औ । (हिंदी मे '' का उच्चारण स्वर जैसा नहीं होता । इसका प्रयोग केवल संस्कृत तत्सम् शब्दों में होता है ।)
उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं :  1. ह्रस्व स्वर       2. दीर्घ स्वर       3. प्लुत स्वर |
ह्रस्व स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में कम समय लगता है, उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं । जैसे – अ, , उ । इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं ।
दीर्घ स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से अधिक समय लगता है, उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं । ये हिंदी में सात (7) हैं – आ, , , , , ,
प्लुत स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है, उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं । जैसे – सुनो ऽ ऽ।


*व्यंजन : जिन वर्णों के उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है, वे व्यंजन कहलाते हैं । ये मूलतः संख्या में 35 हैं ।
संयुक्त व्यंजन : दो व्यंजनों के योग से बने हुए व्यंजनों को संयुक्त व्यंजन कहते हैं । हिंदी में निम्नलिखित चार व्यंजन (क्ष, त्र, ज्ञ, श्र) ऐसे हैं, जो दो – दो व्यंजनों के योग से बने हैं, किंतु एकल वर्ण के रूप में प्रयुक्त होते हैं ।
क् और ष के योग से बना हुआ
( क् + ष ) = क्ष
त् और र के योग से बना हुआ
( त् + र ) = त्र
ज् और ञ के योग से बना हुआ
( ज् + ञ ) = ज्ञ
इसका उच्चारण हिंदी में 'ग्य' जैसा होता है
श् और र के योग से बना हुआ
( श् + र ) = श्र

*नासिक्य व्यंजन : स्पर्श व्यंजन तालिका के क – वर्ग, च – वर्ग, ट – वर्ग,
त – वर्ग तथा प – वर्ग के पंचम वर्ण यानी ङ, , , , म को नासिक्य व्यंजन कहते हैं |

*चिह्न : हिंदी में विरामचिह्नों का प्रयोग :
क्रम
नाम
विराम चिह्न
1
पूर्ण विराम या विराम
खड़ी-पाई (।)
2
अर्द्धविराम
(;)
3
अल्पविराम
(,)
4
प्रश्नवाचक
(?)
5
विस्मयसूचक (संबोधन चिह्न)
(!)
6
उद्धरण
("") ('')
7
योजक
(-)
9
कोष्ठक
[()]
10
हंसपद (त्रुटिबोधक)
(^)
11
रेखांकन
(_)
12
लाघव चिह्न
(॰)
13
लोप चिह्न
(...)
14
अवग्रह चिह्न
()

शब्द : वर्णों के मेल से बने स्वतंत्र एवं सार्थक ध्वनि समूह को शब्द कहते हैं | वह शब्द जिसका सही अर्थ लोग समझ लेते हैं सार्थक शब्द कहलाते हैं | जिसका अर्थ समझ में न आये उसे निरर्थक शब्द कहते हैं | रचना के आधार पर शब्द तीन प्रकार के होते हैं –  1. रूढ़ शब्द,  2. यौगिक शब्द, 
                                           3. योगरूढ़ शब्द |
रूढ़ शब्द : वैसे शब्द जिनका कोइ भी खण्ड सार्थक न हो, जो परम्परा से विशेष अर्थ प्रदान करता आता है, रूढ़ शब्द कहलाते हैं | उदाहरण :
पानी, हाथी |
यौगिक शब्द : वैसे शब्द जिनका दो सार्थक खण्डों से निर्माण हुआ हो, यौगिक शब्द कहलाते हैं | उदाहरण : विद्यालय (विद्या + आलय) |
योगरूढ़ शब्द : वैसे शब्द जो यौगिक होते हैं किंतु अपने सामान्य अर्थ का त्याग कर विशेष अर्थ ग्रहण करते हैं, योग रूढ़ शब्द कहलाते हैं | उदाहरण : लम्बोदर (गणेश) |
*उत्पत्ति के आधार पर शब्द के 5 भेद होते हैं – 1. तत्सम्,  2. तद् भव,
3. देशज,  4. विदेशज,  5. संकर |
तत्सम् : तत्सम् शब्द वे शब्द हैं, जो संस्कृत के शब्द हैं तथा इनका हिंदी मे प्रयोग उसी रूप मे होता है | उदाहरण : पुस्तक, अग्नि |
तद् भव : तद् भव शब्द वैसे शब्द हैं, जो संस्कृत के शब्दों का उच्चरण सहज बनाकर हिंदी में प्रयुक्त किये जाते हैं | उदाहरण : आग, भाई, पिता |
तत्सम
द् भव
अग्नि
आग
अष्ट
आठ
गो
गाय
दुग्ध
दूध

*प्रत्येक, किसी, कोई का प्रयोग हमेशा एकवचन में होता है | कोई तथा किसी के साथ भी का प्रयोग अनावश्यक होता है |
*ज़्यादातर साहित्यकार देवकी नंदन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं ।
कुछ साहित्यकार चंद बरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी भाषा की प्रथम रचना मानते हैं |
*हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है । यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे – छोटे शासन केंद्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे । विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी । हिंदी साहित्य के विकास को आलोचक सुविधा के लिये पाँच ऐतिहासिक चरणों में विभाजित कर देखते हैं, जो क्रमवार निम्नलिखित हैं –
1. आदिकाल (1400 ई. से पहले)
2. भक्ति काल (1375 – 1700)
3. रीति काल (1600 – 1900)
4. आधुनिक काल (1850 ई. के पश्चात्)
5. नव्योत्तर काल (1980 ई. के पश्चात्)
आदिकाल : हिन्दी साहित्य के आदिकाल को आलोचक 1400 इसवी से पूर्व का काल मानते हैं जब हिन्दी का उद् भव हो ही रहा था । हिन्दी की विकास – यात्रा दिल्ली, कन्नौज और अजमेर क्षेत्रों में हुई मानी जाती है । पृथ्वी राज चौहान का उस वक़्त दिल्ली में शासन था और चंद बरदाई नामक उसका एक दरबारी कवि हुआ करता था। कन्नौज का अंतिम राठौड़ शासक जयचंद था जो संस्कृत का बहुत बड़ा संरक्षक था ।

भक्ति काल : हिंदी साहित्य का भक्ति काल समग्रतः भक्ति भावना से ओत प्रोत काल है । इस काल को समृद्ध बनाने वाली चार प्रमुख काव्य – धाराएं हैं ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी, कृष्णाश्रयी ओर रामाश्रयी । इन चार भक्ति शाखाओ के चार प्रमुख कवि हुए जो अपनी – अपनी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं । ये कवि हैं क्रमश: कबीर दास, मलिक मोहम्मद जायसी, सूरदास, तुलसी दास | |

रीति काल : रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी – बंधाई परिपाटी । इस काल को रीतिकाल कहा गया क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बद्धता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की । हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीति – मुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे । केशव, विहारी, भूषण, मतिराम, सेनापति आदि इस युग के प्रमुख रचनाकार रहे ।

 आधुनिक काल : आधुनिक काल हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा है । जिसमें गद्य तथा पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ । जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और याथार्थवादी युग इन चार नामों से जाना गया, वहीं गद्य में इसको, भरतेंदु युग, द्विवेदी युग,रामचंद्र शुक्ल, प्रेमचंद्र तथा अद्यतन युग का नाम दिया गया ।
अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके । जैसे डायरी, या‌त्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख इत्यादि |
1916 के आसपास हिंदी में कल्पनापूर्ण, स्वच्छंद और भावुक एक लहर उमड़ी । भाषा, भाव, शैली, छंद, अलंकार सब दृष्टियों से पुरानी कविता से इसका कोई मेल न था । आलोचकों ने इसे छायावाद या छायावादी कविता का नाम दिया । छायावाद शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया । जयशंकर प्रसाद,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,सुमित्रा नंद पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं ।
राजकुमार वर्मा,माखानलाल चतुर्वेदी,हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर, इन्द्र बहादुर खरे को भी छायावाद ने प्रभावित किया । किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर तथा इन्द्र बहादुर ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी ।
 
प्रमुख रचनाएं एवं रचनाकार :
    रचनाकार
                     रचना
रामधारी सिंह दिनकर
काव्य – रेणुका, उर्वशी, कुरू क्षेत्र, रश्मिरथी |
जय शंकर प्रसाद
काव्य – झरना, लहर, आंसू, तितली, कामायनी, आकाश दीप |
उपन्यास – कंकाल, तितली |
नाटक – स्कंद गुप्त, चंद गुप्त, अजात शत्रु, विशाख |
मैथिलीशरण गुप्त
काव्य – साकेत, भारत भारती, जयद्रथ वध, यशोधरा, जय भारत |
प्रेम चंद
उपन्यास – गोदान, गबन, रंग भूमि, कर्म भूमि, कफन, निर्मला |
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
उपन्यास – अप्सरा |
काव्य – अनामिका, कुकुरमुत्ता, परिमल |
सुमित्रा नंदन पंत
काव्य – पल्ल्व, गुंजन |
महादेवी वर्मा
काव्य – दीप शिखा, निहार |
हरिवंश राय बच्चन
काव्य – मधुशाला, मधुबाला |
भारतेंदु हरिश्चंद्र
नाटक – अंधेर नगरी, भारत दुर्दशा |
राजकुमार वर्मा
नाटक – दीप दान |
बनारसी दास चतुर्वेदी
नाटक – रेखा चित्र |
लाल श्रीनिवास
नाटक - सन्योगिता स्वयंवर
मोहन राकेश
नाटक – लहरों के राजहंस
फणीश्वर नाथ रेणु
उपन्यास – मैला आंचल
धर्म वीर भारती
उपन्यास – गुनाहों कादेवता
अज्ञेय
उपन्यास – नदी के दीप
देवकी नंदनखत्री
उपन्यास – चंद्र कांता
संजीव
काव्यसर्कस
केशव दास
काव्य – कवि प्रिया, रसिक प्रिया |
जगनिक
परमाल रासो (आल्ह खण्ड) |
दलपति विजय
खुमान रासो |
जायसी
काव्य – पद् मावत |
नंद दास
काव्य – रूप मंजरी |
चंद बरदाई
पृथ्वी राज रासो |
नरपति नाल्ह
वीसल देव रासो |
तुलसी दास
काव्य – रामचरित मानस, विनय पत्रिका, कवितावली, गीतवली, वैराग्य संदीपनी |
कबीर
काव्य – बीजक |
सूरदास
काव्य – सूर सागर, साहित्य लहरी |

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